Sunday, 17 May 2020

कान खोल सुन ले पड़ोसी (The neighbour must hear with open ears)


अपने घर में बर्तन बजते,न्याय पराया करते हैं
झूठी शान के परिंदे ज्यादा इतराया करते हैं
कुछ लोगों को अब भी दावत,पाकिस्तानी भाती है
आतंक को गले लगाने में,ज़रा शर्म नहीं क्यों आती है
भूल गए छब्बीस फरवरी घर में घुसकर मारा था
पराक्रम के सामने आतंकी कुनबा हारा था
कारगिल के युद्ध में भी तुमने तो मुहं की खायी है
फिर निर्बुद्धि लोगों में अभी समझ नहीं आयी है  
विश्वकप का पहला मुकाबला अब भी जीत नहीं पाया
बहुत बार पीटा है तुमको,हमने गीत नहीं गाया
तुझसे ज्यादा किसी के दिल में मानवता से बैर नहीं
गीदड़भभकी दी अब, तो फिर से तेरी खैर नहीं
मृत्यु-शैय्या लेने का न्यौता बार-बार ना भेजा कर
जीर्ण-शीर्ण अस्थिपंजर को थोड़ा तो सहेजा कर
नयनों के संकेतों से फिर एक नचा नहीं पायेगा
पीटेंगें पिताजी तो फिर कोई बचा नहीं पायेगा
कोरोना की बैठक में कश्मीर की बातें क्यों करते
अपने वतन से नफ़रत है क्या,घाटी में आकर क्यों मरते
चापलूसी करके औरों की अपना मन बहलाता है
तेरी करनी की वज़ह से भुखमरा कहलाता है
रूस,अमेरिका सबसे फिर अपनी कहलाकर रख देगी
दिल्ली जाग गई तो तेरा दिल दहलाकर रख देगी

4 comments:

  1. शुक्रिया प्रिय पाठक
    आपकी प्रतिपुष्टि हमारी ऊर्जा है।

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  2. Replies
    1. शुक्रिया आपकी प्रतिपुष्टि के लिए
      निरन्तर हमारे ब्लॉग को विजिट करते रहें।

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