उन्मुक्त पंछियों की तरह ही इधर उधर फिरते थे हम
धरती माँ के आंगन में उठते थे और गिरते थे हम
काल्पनिक मुस्कान नहीं थी,बैर-भाव का काम नहीं
सब घर अपने ही थे तब तो,स्वार्थों का ज्ञान नहीं
अहाते में किलकारियों से कोलाहल खुब मचाते थे
कपोल कल्पनाओं की शक्ति से मन में मोर नचाते थे
बचपन तेरे रहते हुए लगता हर दिन त्योहार था
ना किसी से थी रंजिशें,ना ही कोई भार था
तोतली आवाज़ हमारी जनमानस को भाती थी
माता संग मन्दिर जाते थे,वहाँ वे तिलक लगाती थी
खाली था मस्तिष्क हमारा, तभी तो ज्ञान पिपासा थी
हर चीज़ को जानने में कितनी प्रबल जिज्ञासा थी
रोना और बिलखना तब लगती सामान्य बातें थी
बचपन तेरे साथ तो सब उजियाली ही रातें थी
समय ज़रा कुछ ढल गया,विकसित ये सरोज हुआ
शिक्षा से क्रमिक परिचय तब से हमारा रोज हुआ
मोती से आंसूओं की माला लगता है तब से टूट गई
तेरे जाते ही बचपन,जीवन की खुशियाँ छूट गई
कोई नहीं शिकायत थी,तु फिर भी छोड़कर चला गया
मन के नाटक के मंचन से मुहं मोड़कर चला गया
👍👍👍🇮🇳🙏
ReplyDeleteThanks sir ji
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