Thursday, 4 June 2020

दहेज़ प्रथा:समाज के मस्तक पर कलंक (The dowry system: A stigma on the head of society)

प्यारे दोस्तों
आज समाज में एक बेटी के पिता की समस्याएं दहेज़ रूपी दैत्य ने बहुत बड़ा दी हैं,इस पर हमारी स्वरचित कविता प्रस्तुत है -


इंसान नहीं हो सकता पति जो पत्नी का हत्यारा है
जिन्दा होती तो हक मांगती,इसलिए तो मारा है
बेटा बन गया चपरासी जो माँ-बाप भी फूल गए
पाणिग्रहण के वचन दुल्हा जी छ: महीने में भूल गए
आज फिर गरीब बेचारा पकड़ कनपटी रोया है
मुश्किल समझें उस बाप की जिसने एक बेटी खोया है
सोच रहा वह मन ही मन मैं भी अमीर ज़रा होता
तो इस ह्रदय का टूकड़ा ना लाचार मरा होता
पाप के सागर भर आए,पुण्य के स्थल सूखे हैं
बच्चों की परवाह कौन करें अब कितने दिन से भूखे हैं
सास-ससुर ने मिलकर ये तैयार किया मसौदा  था
समझ नहीं आया अब तक यह रिश्ता था या सौदा था
दुष्टों की मौसी कौन हुई,इनका तो कोई खास नहीं
धन के लोलुप लोगों को अब मूल्यों का आभास नहीं
आलस्य में रहने वालों,नमक-मिर्ची भी कैसे दे
तुम्हारा फ़रमान तो यह है ताउम्र ही पैसे दे
इज्जत तो नहीं लुट जाती,थोड़ा सा शीश झुकाने में
जमीन बिकी उस बाप की,शादी का कर्ज़ चुकाने में
सुनकर ऐसी घटनाएं,यह जीवन लगता फीका है
जल्दी से मिटाओ यह मस्तक पर काला टीका है।


जागो युवा जागो
जय हिंद,जय भारत,जय हिंद की सेना

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