Sunday, 17 February 2019

पुलवामा हमला एक काला दिन(The pulwama attack:a black day)




14 फरवरी 2019 का दिन भारतीय सेना लिए एक काली और भयावह रात जैसा था जिसमें कायर लोगों ने दुष्टता और नीचता पूर्वक कुटिलता का सहारा लेते हुए कुछ राज खोलने वालों की मदद से भारतीय सेना के 44 जवानों को छीन लिया
आतंक का यह राक्षस निरंतर बढ़ता ही जा रहा है जो हमारे जाने पर पीछे से वार करके अपनी दुष्टता का परिचय दे रहा है भारत मां के ये जवान सदा सदा अमर रहेंगे और युवाओं के लिए प्रेरणा  स्रोत रहेंगे उन  जवानों को विनम्र श्रद्धांजलि देते हुए आतंकवाद पर मेरी कुछ पंक्तियां प्रस्तुत है

ले गए बलिदान हत्यारे मांँ भारती के 44 सपूतों का
जरूर होगा हाथ इसमें कुछ देशद्रोही दूतों का
बिजली सी चाल से वे जिंदगी की दौड़ को दौड़ गए
एक बार फिर से हमारे 44 भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु हमें छोड़ गए
जिन जवानों को हम हीरों के रूप में देखते हैं
उन्हीं जवानों पर कुछ दुष्ट पत्थर फेंकते हैं
राह बताते हैं कुछ लोग उन आताताईयों को
पनाह देते हैं घरों में उन सौतेले भाइयों को
कब तक हम बलिदान यह सहते रहेंगे?
कब तक हम अबकी बार अबकी बार कहते रहेंगे?
लड़ते तो हमारे 44 उनके 444 को नहीं छोड़ते
देह छोड़ देते लेकिन मांँ भारती की सेवा से मुंँह नहीं मोड़ते
फूट  दिखती है उन्हें इसीलिए तो भारत में आते हैं
कुछ बड़बोले तो इस शहादत पर भी राजनीति करने लग जाते हैं
वे (आतंकी) सबसे कायर हैं दुनिया में यही बताना चाहते हैं
हमारे मणियों की माला बिखेरकर वे कौन सा वीरता पुरस्कार पाते हैं
माना कि हम सीमा पर जाकर लड़ नहीं सकते
लेकिन रोज अखबारों में बेगुनाह जवानों की शहादत की खबरें भी हम पढ़ नहीं सकते
 माना कि हमारी सहनशीलता का सम्मान पिट जाएगा
लेकिन हम मिलकर चाहे तो दुनिया के नक्शे से आतंक का नामोनिशान मिट जाएगा



Saturday, 9 February 2019

भारतीय समाज और असहिष्णुता?


असहिष्णुता ?

नमस्कार मित्रों।
          
                  एक बार आपका फिर से मेरे ब्लॉग में स्वागत है। पिछले कुछ वर्षों से भारतीय राजनीति को एक नया शब्द मिला है जिसका नाम है :-  असहिष्णुता ? आप सोच रहे होंगे मैं बार बार असहिष्णुता? के पीछे प्रश्नवाचक चिह्न क्यों  लगा रहा हूँ ? चिंता मत कीजिए मेरे ब्लोग पढ़ते रहिये आपके सभी सवालों का जबाब मेरे ब्लॉग मेंं है।

तो आनंदित होने के लिए तैयार हो जाइए 😊
                 भारत में सरकार परिवर्तन के साथ ही  सहिष्णुता वनाम असहिष्णुता की जंग छिड़ गई  तथा इसी के साथ भारत दो गुटों में बंट गया एक तबका जो भारत को  सहिष्णु मानता हैं तथा दूसरा तबका जो भारत को असहिष्णु  मानता है। 

सहिष्णु शब्द  का शाब्दिक अर्थ होता हैै  सहन करना और इसी के विलोम में असहिष्णु शब्द का अर्थ होता हैै सहन ना कर पाना । 

परंतु भारतीय राजनीति में इसका उपयोग धार्मिक आधार पर किया जाता है। असहिष्णुता के समर्थकों का मानना है कि भारत में धर्म के नाम पर असहिष्णुता बढ़ रही है लोग धर्म के नाम पर लोग एक दूसरे को मार रहे हैं और धर्म में भी खासकर हिन्दू धर्म को इंगित करके असहिष्णुता का धब्बा लगाया  जा रहा है इन लोगो का मानना की सम्पूर्ण  हिन्दू समाज असहिष्णु हो गया है और धर्म के नाम पर अल्पसंख्यक धर्म के लोगो की हत्या कर रहा है और इसके चलते कई कलाकारों  जिन्हें ना केवल अल्पसंख्यक समाज द्वारा ही नही  सम्पूर्ण भारत एवं हिन्दू  समाज द्वारा भी बहुत सम्मान दिया  गया है और अब भी दिया जा रहा है  को भारत में रहने से डर लगने लगा है। इन कलाकारों की राजनीतिक 
प्रत्याशाओं को डर का रूप देने की कला को मेरा सलाम।

सर्वप्रथम आमिर खान ने कहा की भारत में माहौल अच्छा नही है और उन्हें भारत में डर लगता है और उनकी पत्नी उन्हें कहती है कि हमें भारत को छोड़ देना चाहिए।
और हाल ही में नाशीरुद्दीन शाह का बयान आया कि उन्हें भारत में डर लगता है की कही कोई उनके बच्चों को रास्ते में मार ना दे और भारत में इंसान की जान से ज्यादा गाय की जान की ज्यादा कीमत है।

और इसके चलते कई साहित्कारों ने अपने सम्मान लौटा दिए।

पर इन सब पर सवाल यह उठतें है कि :-

1. पिछले पांच सालों में ऐसा क्या हो गया जो आज तक देश में कभी नहीं हुआ तो फिर अचानक देश में असहिष्णुता कहा से आ गई।

2. अखलाल और कलबुर्गी की मौत पर अपने पुरुष्कार बापसी करने वाले साहित्यकार तब कहा थे जब 5 लाख कश्मीरी पंडितों को उनके घर से निकाल दिया गया तथा पूरे देश में 10,000 सिक्खों को मार दिया गया तब किसी भी साहित्यकार के आंखों में आंसू नहीं आये। तो अचानक ऐसा क्या हो गया जो पूरा भारतीय समाज असहिष्णु हो गया।

3. मुंबई बम धमाकों में इतने लोग मारे गए तब कलाकारों को डर नही लगा।

4. रोहिंग्या मुसलमानो को बापिस ना भेजा जाए इसलिए आजाद मैदान में तोड़ फोड़ कि गई कई पॉलिस कर्मियों को मार  दिया गया तब डर नहीं लगा तो अचानक ऐसा क्या हो गया......

और यदि देश में हिंसा के आंकड़ों को देखा जाए तो साल दर साल हिंसा के आंकड़े कम होते जा रहे हैं।

Ipsos mori नामक एक संस्था ने 27 देश एवं 20,000 लोगो का सर्वे किया गया जिसके आधार पर कनाडा , चीन  और मलेशिया के बाद भारत का सहिष्णु देशो में चौथा स्थान  आता हैं। 


और अब हिन्दू समाज में सहिष्णुता की बात करें तो:- 

इतिहास से आरंभ करे तो 17-17 बार मोहम्मद गौरी को पृथ्वीराज चौहान ने माफ किआ था .. इससे ज्यादा कोई क्या सहिष्णु हो सकता है।
14-14 बार महमूद गजनवी ने  सोमनाथ मंदिर को तोड़ा था फिर भी मंदिर के पुजारी ने उससे कुछ नही कहा।

और यदि वर्तमान की बात करे तो राजनीति के अलावा कही भी असहिष्णुता नही है......

यदि मैं मेरे खुद के परिवार की बात करूँ तो अब भी मेरे घर पर पहली और आखिरी रोटी पशु के लिए बनती है जिससे जीव मात्र तक भूखा ना रहे।

आज भी शाम होने के बाद हम पेड़ पौधों को हाथ नही लगाते यह मानते हुए की इनमे भी इंसानो की तरह जान है और यह सो रहे होते हैं

अभी भी भारत में गांवो में लोग मिल जुलकर रहते हैं।

जिस प्रकार किसी एक व्यक्ति के बुरे कार्यो की वजह से पूरे परिवार को बुरा नही कह सकते उसी प्रकार कुछ लोगो के गलत इरादों की वजह से पूरे भारतीय समाज एवं हिन्दू धर्म को बुरा , असहिष्णु या निकृष्ट धर्म नही कह सकते ।

भारत एक है इसे एक रहने दो धर्म के आधार पर या अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं  की पूर्ति के लिए इसे मत बांटो ।

भारत देश जो अपनी अहिंसा और सत्य के लिए विश्व भर में विख्यात है.......आज इस निकृष्ट राजनीति से जूझ रहा हैं।

भारत एक सहिष्णु एवं सर्वधर्मसमभाव वाला देश है।

धन्यवाद।

आनंदित भव: 😊






Thursday, 7 February 2019

अध्यापक के बारे में.........

नमस्कार ब्लॉगर परिवार
इस दुनिया में  परोपकार और असीम प्रेम का पर्याय यदि किसी शब्द को समझा जाए तो एक ही उत्तर निकल कर आता है, वह है गुरु। गुरु में हमारे माता पिता, हमारे आदर्श या हमारे शिक्षक शामिल हो सकते हैं।
वास्तव में एक शिक्षक के परोपकार से उऋण होने में सात जन्म का समय भी कम पड़ सकता है।
एक शिक्षक हमेशा अपनी जिंदगी के बेशकीमती समय की अपने विद्यार्थियों के हित में आहुति देता है।
भोजन करना सीखने से लेकर दुनिया के बड़े से बड़े अविष्कार में भी किसी गुरु की प्रत्यक्ष या पर्दे के पीछे की भूमिका अवश्य होती है।
हमारी माता से लेकर हर एक व्यक्ति जो हमारे काम आता है वह हमारा गुरु होता है
शिक्षक शब्द जिसे अंग्रेजी में टीचर (TEACHER)  कहा जाता है का मेरे अनुसार शाब्दिक अर्थ कुछ इस प्रकार है-
1.  T-Trainer( प्रशिक्षक)
2.  E-Encouraging( प्रोत्साहक)
3.  A-Architect( शिल्पकार या निर्माता जो देश के भावी।       कर्णधारों को शिक्षा देकर एक सभ्य इंसान बनाता है)
4.  C-Creator( सृजनकर्ता जो विद्यार्थियों के माध्यम से           देश को कुछ नया सृजित करके देता है)
5.  H- Helper( सहायक )
6.  E-Evaluator( मूल्यांकनकर्ता)
7.  R-Resistor( प्रतिरोधक जो विद्यार्थी को अनुचित काम      करने से रोकता है
अध्यापक के पास नौसिखिया बालक के रूप में गिली मिट्टी होती है जिससे वह दीपक बना सकता है जो सभी को प्रकाशमान करें या फिर कुल्हड़ जिसे दाह संस्कार के समय अवधि के साथ ले जाया जाता है।
अध्यापक अधिगम की रीड की हड्डी होता है। अध्यापक अधिगम की प्रक्रिया को कई प्रकार से नई चाल दे सकता है। अधिगम को रुचिपूर्ण बनाने में अध्यापक महती भूमिका होती है। अध्यापक अधिगम को रुचि पूर्ण बनाने में कुछ इस प्रकार के कार्य कर सकता है-
1- अपने विषय की प्रश्नोत्तरी का आयोजन करवाना।
2- विद्यार्थियों के सत्रीय कार्य को प्रदर्शनी के रूप में करवाना।
3- पढ़ाते समय विभिन्न चलचित्रों से संबंधित तथा अन्य जीवंत उदाहरणों का सहारा लेकर अधिगम का करवाना।
4- सभी विद्यार्थियों को समान प्यार देना ।
5- प्रत्येक विद्यार्थी से संबंध रखना तथा उसकी समस्याओं को जानना।

इस प्रकार गुरु संपूर्ण शिक्षण प्रक्रिया की नौका को चलाने वाला नाविक होता है और दुनिया का नायक होता है शिक्षा की गाथाओं का गायक होता है,
परोपकार की मूरत होता है और प्रेम और दया की सूरत  होता है

मेरे सभी गुरुजनों के चरणों में मेरा शत् शत् नमन।

धन्यवाद ब्लॉगर परिवार
         
                         जय हिंद जय भारत

Saturday, 2 February 2019

अधिकारों और कर्तव्यों का महत्व (The importance of rights and responsibilities),#rights,#responsibilities

 नमस्कार ब्लॉगर परिवार
आज भारत में बेटी बचाने के लिए ,बेटी पढ़ाने के लिए, बच्चों को शिक्षा का अधिकार दिलवाने के लिए ,अपने घरों को साफ रखने के लिए, गंगा सफाई के लिए ,वन न काटने के लिए ,कन्या भ्रूण हत्या न करने के लिए ,बलात्कार, रेप, दुष्कर्म आदि न करने के लिए, सांप्रदायिक एकता के लिए ,देश को अलग-अलग भागों में बांटने के लिए राजनीति में भ्रष्टाचार को दूर करने के लिए, रिश्वत ना लेने के लिए ,उपभोक्ताओं को  जागरूक करने के लिए तथा इसी के समान अन्य सैकड़ों काम करने के लिए भारतीय प्रधानमंत्री को या राष्ट्रपति को या अन्य किसी राज्य प्रमुख को संसद, विधानसभा या राष्ट्रपति भवन से खड़े होकर अभियान चलाने पड़ते हैं।
 जब हमारा संविधान अस्तित्व में आया तो हमें उसने कर्तव्य और अधिकार दोनों का पाठ पढ़ाया । लेकिन हमारी स्मृति इतनी कम है कि हम अधिकारों की तो पुरजोर मांग करते रहे और हमें हमारे कर्तव्य ध्यान ही नहीं रहे।
 एक समय था जब भारतीय नवयुवक और भारतीय समाज की दुनिया भर में तूती बोलती थी और हमारी संस्कृति तथा परंपराएं तो शुरुआत से ही दुनिया को सिखाने वाली रही हैं। लेकिन आज तो हम हर कार्य में अपने कर्तव्य का परिचय देने में नौसिखिया प्रतीत होते हैं। ऐसा लगता है मानो कि हम कठपुतली हों या गारे मिट्टी से बने कोई कंकाल हो।
हमारे से अच्छे तो बेजुबान पशु ही हैं जो भले ही प्रकृति को कुछ अधिक सकारात्मक नहीं दे पाते हो लेकिन वे प्रकृति को नुकसान तो नहीं पहुंचाते। फिर हम ऐसे कुकृत्य करके शायद अपने आप को और मनुष्य की विवेकशीलता की  प्रवृत्ति को लज्जित करते हैं ।आखिर फिर क्यों मानव को प्रकृति का सिरमौर माना जाता है? इससे तो पेड़ पौधे और समुद्र तालाब ही सही जो बेजुबान व विवेकहीन होते हुए भी दुनिया की सेवा करते हैं तथा अपनी परोपकारी प्रवृत्ति का परिचय देते हैं। फिर मनुष्य में भला क्या खाक का विवेक है ?क्या एक माता का कर्तव्य नहीं है कि जिस बेटी को उसने अपने पुत्र के समान 9 महीने तक अपने गर्भ में रखकर पाला पोसा उसे वह जीने का अधिकार  दे ? लेकिन आज के भारतीय समाज के लिए कन्या भ्रूण हत्या जैसे वीभत्स कृत्य को स्पष्ट करने के लिए निम्नांकित पंक्तियां ही काफी है
   पापा तेरी प्यारी में हो ना सकी, तेरी गोद में मैं सो ना सकी
   मांँ ऐसी थी क्या मजबूरी जो मैं जन्म लेना सकी
हे विवेकशील प्राणी मनुष्य! जरा अपने  विवेक का प्रयोग कर करके कम से कम यह तो विचार कर लेता कि जिस कन्या ने अभी  संसार सागर में प्रवेश तक नहीं किया उसको जन्म लेने से पहले मारने से भयंकर अपराध इस दुनिया में क्या हो सकता है।
इसके बाद बेटियों को सिर्फ पराया धन समझकर ही पढ़ाई कराई जाती है। हालांकि शहरी इलाकों में अब इस रूढ़िवादिता में सुधार देखा गया है। लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में अभी भी ढाक के वहीं तीन पात है अर्थात वहां अभी भी परिस्थितियां स्थिर बनी हुई हैं।
क्या एक सभ्य समाज का कर्तव्य नहीं है की वह एक बच्चे को शिक्षा दिलवाए? क्या 21 वीं सदी को विज्ञान का युग बताने वालों में इतनी भी समझ नहीं है कि पेड़ पौधे ऑक्सीजन छोड़ते हैं जो कि हमारी प्राणवायु है? यदि इतनी समझ होती तो भारत में वनों का क्षेत्रफल  आज चिंता का सबब नहीं होता।
क्या मनुष्य अपनी तर्कशीलता का इतना सा उपयोग नहीं कर सकता कि गंगा जैसी अनेकों नदियां जिनमें दूध से उज्जवल जल बहता था उन्हें प्रदूषित करके अपनी दूषित मानसिकता का परिचय ना दिया जाए?
क्या हमारे समाज का अंतिम सत्य सिर्फ यौनसंबंध बनाना  ही रह गया है जो लोग  बेटियों ,बहिनों के सामान लड़कियों को जिनके अभी दूध के दांत तक नहीं गिरे हैं उनके साथ दुष्कर्म करके हमारे समाज और हमारी मानसिकता,  परिवार, देश को लज्जित करते हैं?
क्या अपने आप को सबसे शिक्षित व सर्वोपरि बताने वाले मानव में इतनी भी समझ नहीं है कि स्वच्छता जीवन का एक अनिवार्य घटक है?
फूट डालो राज करो की जिस कूटनीति के कारण अंग्रेजों ने 200 साल तक इस देश पर राज किया तथा अनेकों नौजवानों का खून पीकर वे यहां से गए उसी को अपना कर आज कि राजनीति देश में फूट डालकर अपनी किस विवेक शीलता का परिचय देना चाहते हैं?तथा हम जो सर्वधर्म समभाव की बात करते हैं वे हिंदू ,मुस्लिम , सिख, ईसाई आदि शब्दों को समाज में भेदभाव करने के लिए प्रयुक्त करके हमारी किस आदर्शवादी ता का परिचय देना चाहते हैं?
क्या इस देश का भविष्य इसी में सिमट कर रह जाएगा कि जो भी प्रधानमंत्री आए वह दिल्ली से हर साल नए-नए अभियान चलाएं तथा इन अभियानों के नाम पर काफ़ी सारा पैसा खर्च किया जाए?
दरअसल लगता है की आज के इन पढ़े लिखे भारतीयों की तुलना में विगत सदियों के अशिक्षित ,निरक्षर भारतीय लाखों गुना श्रेष्ठ थे तथा जीवन मूल्यों तथा  परोपकार की भाषा को वे शायद ज्यादा बेहतर समझते थे।
उनकी रगों में शायद देश प्रेम का रक्त बहता था बेटियों को यत्र नार्यस्तु पूज्यंते तथा रमंते देवता की भावना से वे आदर और सम्मान देते थे।
दरअसल जब तक हम कर्तव्य ना करेंगे तथा अधिकारों की मांग करते रहेंगे तब तक इस देश की नौका संकट में ही नजर आती है ।क्योंकि एक व्यक्ति का कर्तव्य ही दूसरे का अधिकार बनता है जैसे एक बच्चे को शिक्षा का अधिकार होना चाहिए यह समाज द्वारा प्रदान किया जाना चाहिए तो उस बच्चे को शिक्षा दिलवाना समाज तथा उसके माता पिता का कर्तव्य है जो उसका अधिकार बना।
हमें देशप्रेम, सांप्रदायिक एकता ,भ्रष्टाचार से दूर पारदर्शी प्रशासन ,बेटी बेटे के प्रति समान दृष्टिकोण रखकर आगे बढ़ना होगा। अन्यथा हम वैमनस्यता के इस जंजाल में उलझ कर अपने पांव पर कुल्हाड़ी खुद मार रहे हैं यह घाव आज तो फिर भी शांत नजर आते हैं लेकिन जब दूसरे लोगों को यह पता चलेगा तो शायद वे इन पर आक्रमण रूपी नमक मिर्च छिड़ककर हमारी वेदना को तीव्र कर देंगे।
आज भी समय है प्रेरणा लेने का, आज भी समय है जगने का आज भी समय है, इन बुराइयों को हमारे समाज से भगाने  का ,आज भी समय है सुधार करने का।
  स्वामी विवेकानंद सदृश अनेकों महापुरुषों के वंशजों
    आप उठो जागो और शेर बनो।

ब्लॉगर की दुनिया का धन्यवाद
जय हिंद जय भारत

प्लास्टिक वेस्ट: जागरूकता की जरूरत

आज मैं जिस विषय पर चर्चा करने जा रहा हूँ, वह अत्यधिक चिंतनीय है। हम सभी को इस समस्या पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। यह समस्या है- प्लास्टिक वेस्ट या कृत्रिम अपशिष्ट। जैसा कि हम सभी जानते हैं यह समस्या वर्तमान में अत्यंत ज्वलंत रूप धारण कर चुकी है‌। अतः इस समस्या का सही रूप से संबोधन वर्तमान समय की बड़ी आवश्यकता है। हम सभी को इस समस्या के कोई विशेष परिचय की आवश्यकता नहीं है, यह तो हमारे दैनिक जीवन से जुड़ी बात है।
हमारे द्वारा उपयोग किए जाने वाले प्लास्टिक की मात्रा दिनों दिन बढ़ती जा रही है। हम जानते हैं कि वर्तमान में आम प्रचलन में प्रयुक्त प्लास्टिक अनिम्नीकरणीय अर्थात नोन डिग्रेडेबल है। इसी सामान्य कचरे की तरह नहीं फेंका जाना चाहिए और ना ही जलाया जाना चाहिए, जबकि हम ऐसा ही करते हैं। चूँकि प्लास्टिक में विषैले प्रदूषक विद्यमान होते हैं, अतः इसके मृदा से सतत् संपर्क में रहने पर वहाँ उग रहे पेड़ पौधों की वृद्धि नकारात्मक रूप में प्रभावित होती है। जल में फेंक दिए जाने पर जलीय जीवों का जीवन खतरे में पड़ जाता है। साथ ही यदि जलाया जाए तो वायु प्रदूषण होता है। एक नए शोध के मुताबिक महासागरीय प्रदूषण के 90% के लिए अनिम्नीकरणीय प्लास्टिक जिम्मेदार है।
इतनी गंभीर समस्या होने के बावजूद भी हम इस समस्या के प्रति उदासीन रहते हैं, हम पर्यावरण को अपने से अलग करके देखते हैं, यही कारण है कि हमारे पर्यावरण और जिसके कारण अंततः हमें होने वाली क्षति के लिए मैं हमारे मनोवैज्ञानिक प्रदूषण को जिम्मेदार मानता हूं। हम सभी की सोच इतनी संकुचित हो चुकी है कि हमें कोई प्रभाव नहीं पड़ता, हम अपने स्तर पर प्रयास करना तो दूर की बात, इसके विपरीत पर्यावरण प्रदूषण में सहभागी बनते हैं। हम अक्सर यह सोचते हैं कि "अकेले मेरे बदलने से क्या बदलेगा" यदि यही सोच उन क्रांतिकारियों की होती, जिन्होंने  हमें कड़े संघर्ष के बाद आजादी दिलाई तो शायद हम आजादी को आज इस रूप में ना जी रहे होते, और ना ही स्वाभिमान की भावना से भरे होते और हमारी जिंदगियाँ उन संघर्षों का सामना कर रही होती, जिनका प्रत्यक्षीकरण संभव नहीं है।
हमें अपनी मानसिकता को व्यापकीकृत करने की जरूरत है। हमें अपनी सोच के संकुचित दायरों का विस्तार प्रारंभ करने की जरूरत है। हमें जरूरत है कि हम अपनी सोच उन क्रांतिकारियों की तरह व्यापक करें जिन्होंने हमारे जीवन में सकारात्मक परिवर्तनों के लिए अपनी जान की बाजियाँ लगा दीं।
मैं समझता हूँ कि एकदम से हम सभी प्रकार के प्लास्टिक का पूर्णरूपेण त्याग नहीं कर सकते, परंतु शायद हम इतना तो कर ही सकते हैं कि आज से घर में पॉलिथीन में सामान ना लायें। हमारा यह एक कदम एक कदम शुरुआत हो सकता है यदि और केवल यदि हम चाहे तो, उस सकारात्मक बदलाव का जो हमें निश्चित रूप से जीना चाहिए। इसके अतिरिक्त यदि हम इस क्षेत्र में अनुसंधान अपने स्तर पर करें अथवा हो रहे शोधों पर पैनी नजर बना कर शीघ्रातिशीघ्र बदलाव अपने आसपास के क्षेत्र में लाने का प्रयास करें, तो शायद हम अपने सपनों का जीवन जी पायें।