नमस्कार ब्लॉगर परिवार
आज भारत में बेटी बचाने के लिए ,बेटी पढ़ाने के लिए, बच्चों को शिक्षा का अधिकार दिलवाने के लिए ,अपने घरों को साफ रखने के लिए, गंगा सफाई के लिए ,वन न काटने के लिए ,कन्या भ्रूण हत्या न करने के लिए ,बलात्कार, रेप, दुष्कर्म आदि न करने के लिए, सांप्रदायिक एकता के लिए ,देश को अलग-अलग भागों में बांटने के लिए राजनीति में भ्रष्टाचार को दूर करने के लिए, रिश्वत ना लेने के लिए ,उपभोक्ताओं को जागरूक करने के लिए तथा इसी के समान अन्य सैकड़ों काम करने के लिए भारतीय प्रधानमंत्री को या राष्ट्रपति को या अन्य किसी राज्य प्रमुख को संसद, विधानसभा या राष्ट्रपति भवन से खड़े होकर अभियान चलाने पड़ते हैं।
जब हमारा संविधान अस्तित्व में आया तो हमें उसने कर्तव्य और अधिकार दोनों का पाठ पढ़ाया । लेकिन हमारी स्मृति इतनी कम है कि हम अधिकारों की तो पुरजोर मांग करते रहे और हमें हमारे कर्तव्य ध्यान ही नहीं रहे।
एक समय था जब भारतीय नवयुवक और भारतीय समाज की दुनिया भर में तूती बोलती थी और हमारी संस्कृति तथा परंपराएं तो शुरुआत से ही दुनिया को सिखाने वाली रही हैं। लेकिन आज तो हम हर कार्य में अपने कर्तव्य का परिचय देने में नौसिखिया प्रतीत होते हैं। ऐसा लगता है मानो कि हम कठपुतली हों या गारे मिट्टी से बने कोई कंकाल हो।
हमारे से अच्छे तो बेजुबान पशु ही हैं जो भले ही प्रकृति को कुछ अधिक सकारात्मक नहीं दे पाते हो लेकिन वे प्रकृति को नुकसान तो नहीं पहुंचाते। फिर हम ऐसे कुकृत्य करके शायद अपने आप को और मनुष्य की विवेकशीलता की प्रवृत्ति को लज्जित करते हैं ।आखिर फिर क्यों मानव को प्रकृति का सिरमौर माना जाता है? इससे तो पेड़ पौधे और समुद्र तालाब ही सही जो बेजुबान व विवेकहीन होते हुए भी दुनिया की सेवा करते हैं तथा अपनी परोपकारी प्रवृत्ति का परिचय देते हैं। फिर मनुष्य में भला क्या खाक का विवेक है ?क्या एक माता का कर्तव्य नहीं है कि जिस बेटी को उसने अपने पुत्र के समान 9 महीने तक अपने गर्भ में रखकर पाला पोसा उसे वह जीने का अधिकार दे ? लेकिन आज के भारतीय समाज के लिए कन्या भ्रूण हत्या जैसे वीभत्स कृत्य को स्पष्ट करने के लिए निम्नांकित पंक्तियां ही काफी है
पापा तेरी प्यारी में हो ना सकी, तेरी गोद में मैं सो ना सकी
मांँ ऐसी थी क्या मजबूरी जो मैं जन्म लेना सकी
हे विवेकशील प्राणी मनुष्य! जरा अपने विवेक का प्रयोग कर करके कम से कम यह तो विचार कर लेता कि जिस कन्या ने अभी संसार सागर में प्रवेश तक नहीं किया उसको जन्म लेने से पहले मारने से भयंकर अपराध इस दुनिया में क्या हो सकता है।
इसके बाद बेटियों को सिर्फ पराया धन समझकर ही पढ़ाई कराई जाती है। हालांकि शहरी इलाकों में अब इस रूढ़िवादिता में सुधार देखा गया है। लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में अभी भी ढाक के वहीं तीन पात है अर्थात वहां अभी भी परिस्थितियां स्थिर बनी हुई हैं।
क्या एक सभ्य समाज का कर्तव्य नहीं है की वह एक बच्चे को शिक्षा दिलवाए? क्या 21 वीं सदी को विज्ञान का युग बताने वालों में इतनी भी समझ नहीं है कि पेड़ पौधे ऑक्सीजन छोड़ते हैं जो कि हमारी प्राणवायु है? यदि इतनी समझ होती तो भारत में वनों का क्षेत्रफल आज चिंता का सबब नहीं होता।
क्या मनुष्य अपनी तर्कशीलता का इतना सा उपयोग नहीं कर सकता कि गंगा जैसी अनेकों नदियां जिनमें दूध से उज्जवल जल बहता था उन्हें प्रदूषित करके अपनी दूषित मानसिकता का परिचय ना दिया जाए?
क्या हमारे समाज का अंतिम सत्य सिर्फ यौनसंबंध बनाना ही रह गया है जो लोग बेटियों ,बहिनों के सामान लड़कियों को जिनके अभी दूध के दांत तक नहीं गिरे हैं उनके साथ दुष्कर्म करके हमारे समाज और हमारी मानसिकता, परिवार, देश को लज्जित करते हैं?
क्या अपने आप को सबसे शिक्षित व सर्वोपरि बताने वाले मानव में इतनी भी समझ नहीं है कि स्वच्छता जीवन का एक अनिवार्य घटक है?
फूट डालो राज करो की जिस कूटनीति के कारण अंग्रेजों ने 200 साल तक इस देश पर राज किया तथा अनेकों नौजवानों का खून पीकर वे यहां से गए उसी को अपना कर आज कि राजनीति देश में फूट डालकर अपनी किस विवेक शीलता का परिचय देना चाहते हैं?तथा हम जो सर्वधर्म समभाव की बात करते हैं वे हिंदू ,मुस्लिम , सिख, ईसाई आदि शब्दों को समाज में भेदभाव करने के लिए प्रयुक्त करके हमारी किस आदर्शवादी ता का परिचय देना चाहते हैं?
क्या इस देश का भविष्य इसी में सिमट कर रह जाएगा कि जो भी प्रधानमंत्री आए वह दिल्ली से हर साल नए-नए अभियान चलाएं तथा इन अभियानों के नाम पर काफ़ी सारा पैसा खर्च किया जाए?
दरअसल लगता है की आज के इन पढ़े लिखे भारतीयों की तुलना में विगत सदियों के अशिक्षित ,निरक्षर भारतीय लाखों गुना श्रेष्ठ थे तथा जीवन मूल्यों तथा परोपकार की भाषा को वे शायद ज्यादा बेहतर समझते थे।
उनकी रगों में शायद देश प्रेम का रक्त बहता था बेटियों को यत्र नार्यस्तु पूज्यंते तथा रमंते देवता की भावना से वे आदर और सम्मान देते थे।
दरअसल जब तक हम कर्तव्य ना करेंगे तथा अधिकारों की मांग करते रहेंगे तब तक इस देश की नौका संकट में ही नजर आती है ।क्योंकि एक व्यक्ति का कर्तव्य ही दूसरे का अधिकार बनता है जैसे एक बच्चे को शिक्षा का अधिकार होना चाहिए यह समाज द्वारा प्रदान किया जाना चाहिए तो उस बच्चे को शिक्षा दिलवाना समाज तथा उसके माता पिता का कर्तव्य है जो उसका अधिकार बना।
हमें देशप्रेम, सांप्रदायिक एकता ,भ्रष्टाचार से दूर पारदर्शी प्रशासन ,बेटी बेटे के प्रति समान दृष्टिकोण रखकर आगे बढ़ना होगा। अन्यथा हम वैमनस्यता के इस जंजाल में उलझ कर अपने पांव पर कुल्हाड़ी खुद मार रहे हैं यह घाव आज तो फिर भी शांत नजर आते हैं लेकिन जब दूसरे लोगों को यह पता चलेगा तो शायद वे इन पर आक्रमण रूपी नमक मिर्च छिड़ककर हमारी वेदना को तीव्र कर देंगे।
आज भी समय है प्रेरणा लेने का, आज भी समय है जगने का आज भी समय है, इन बुराइयों को हमारे समाज से भगाने का ,आज भी समय है सुधार करने का।
स्वामी विवेकानंद सदृश अनेकों महापुरुषों के वंशजों
आप उठो जागो और शेर बनो।
ब्लॉगर की दुनिया का धन्यवाद
जय हिंद जय भारत