गुरु शिष्य की परंपरा भारतीय शिक्षा व्यवस्था की नींव रही है। प्राचीन गुरुकुल शिक्षा व्यवस्था में गुरु शिष्य के संबंध अत्यन्त प्रगाढ़ रहे हैं , परंतु धीरे धीरे इन संबंधों में वो गर्माहट , वो अपनापन कहीं खो गया है । ऐसे समय में शिक्षक की भूमिका बढ़ जाती हैं । शिक्षक को अपनी भूमिका में एक मित्र , एक मार्गदर्शक , एक प्रेरक , एक आदर्श व्यक्तित्व के रूप में प्रस्तुत करनी चाहिए ।हर विद्यार्थी में अपार संभावनाएं छुपी हुई हैं उन संभावनों को प्रतिभाओ में बदलने का पवित्र कार्य शिक्षक का परम कर्तव्य है।शिक्षक के लिए जरूरी है कि वो अपने विद्यार्थियों में वो आत्मविश्वास जगाये की वो हर कार्य को करने के लिये तत्पर हो सके। रवींद्र नाथ ठाकुर जी ने शिक्षक की भूमिका को स्पष्ट करते हुए कहा भी है कि शिक्षको को अपने विद्यार्थीयो को प्रभावित नही अपितु प्रकाशित करना चाहिए। शिक्षक और विद्यार्थीयो के मध्य का प्रगाढ़ वैश्वासिक संबंध ही शिक्षा को उसके वास्तविक लक्ष्य तक ले जा सकता है।
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