Tuesday, 4 August 2020

क्या प्रशासन का हिस्सा बनने से पूर्व अंग्रेज बनना अनिवार्य है?

जैसा की सर्वविदित है कि संघ लोक सेवा आयोग भारत में प्रशासनिक अधिकारियों के चयन हेतु त्रिस्तरीय परीक्षा को संपन्न करवाता है। इसी क्रम में वर्ष 2019 की सिविल सर्विसेज भर्ती परीक्षा का अंतिम परिणाम 4 अगस्त 2020 को जारी किया गया जिसमें हिंदी माध्यम से चयनित विद्यार्थियों की संख्या गूलर के फूल के समान थी।
जैसा कि हम जानते हैं अधिकांश गरीब व मध्यम वर्गीय भारतीय बच्चे हिंदी व अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में शिक्षित होते हैं तो फिर क्या गरीब का बच्चा जो हिंदी में शिक्षित हुआ है उसे जिले की कमान संभालने से वंचित सिर्फ इसलिए किया जाता रहेगा कि उसने तथाकथित सभ्य लोगों की भाषा अर्थात अंग्रेजी की तालीम नहीं ली है?
यहां यह स्पष्ट कर देना जरूरी है कि यूपीएससी के इतिहास में आज तक किसी भी हिंदी माध्यम के विद्यार्थी को प्रथम स्थान हासिल नहीं हुआ।
प्रश्न 1: क्या यूपीएससी परीक्षा के दौरान प्रश्न पत्र का हिंदी अनुवाद करते समय तथा मूल्यांकन करते समय भाषाई आधार पर वस्तुनिष्ठता हेतु किए गए प्रबंध पर्याप्त हैं?
यदि हां तो फिर हर वर्ष प्रश्नपत्रों के हिंदी अनुवाद में ऐसी शब्दावली प्रयुक्त क्यों की जाती है जिसका अस्तित्व किताबों में कहीं भी नहीं मिलता?
क्या लाखों विद्यार्थी जो हिंदी माध्यम से तैयारी कर रहे हैं वे शैक्षिक रूप से इतने पिछड़े हैं कि कुल रिक्तियों पर  10% चयन भी उनमें से नहीं हो रहा है?
क्या भाषा होशियार होने का कोई प्रमाण है? यदि हां तो इसकी पुष्टि की जाए यदि नहीं तो फिर हिंदी माध्यम के विद्यार्थियों के चयन में विषमताओं को स्पष्ट करें
महात्मा गांधी कहते थे" अंग्रेजी बालकों में मानसिक दासता पैदा करती है" 
दुर्भाग्य की बात तो यह है कि भारत को आजादी तो 1947 में ही मिल चुकी है लेकिन आज भी भारत की अपनी भाषा हिंदी और हिंदी भाषी लोग अंग्रेजी के उपनिवेश बने हुए हैं आज देश के बड़े दफ्तरों में जाकर हिंदी में बात करना अशिक्षित होने का पर्याय सा लगता है। 
लॉर्ड मैकाले ने कहा था कि भारत को हम सदा सदा के लिए मानसिक गुलाम बनाकर रखेंगे यह बात शत प्रतिशत चरितार्थ लग रही है। 

क्या आप सहमत हैं कि हिंदी माध्यम के विद्यार्थियों की प्रतिभा को वास्तव में दबाया जा रहा है? 

धन्यवाद
जय हिंद जय भारत


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