जैसा की आप सभी को पता है इस समय ना केवल भारतवर्ष अपितु संपूर्ण विश्व कोरोना के कहर की चपेट में है तथा जीवन थम सा गया है इसी क्रम में मार्च में भारत में चल रही सभी परीक्षाओं को स्थगित कर दिया गया था जिसके बाद मई से लेकर अब तक निरंतर सरकारें विश्विद्यााल के छात्रों की परीक्षाएं करवाने के संबंध में दुविधा में है। एक और जहां विद्यार्थियों के स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए परीक्षाओं का आयोजन करना अपेक्षाकृत कम महत्वपूर्ण है वहीं दूसरी ओर विद्यार्थियों को बिना परीक्षा के अगली कक्षा में उत्तीर्ण करना विभिन्न सीमाओं को धारण किए हुए हैं। निश्चित रूप से हम यह चाहते हैं की विद्यार्थियों की सुरक्षा के हित में उन्हें प्रमोट किया जाए लेकिन निम्न सीमाओं पर ध्यान देने की विशेष आवश्यकता है-
1) राजस्थान जैसे राज्य में जहां कक्षा 10 में अध्ययनरत 14 से 15 वर्षीय औसतन आयु वर्ग के बच्चों की परीक्षाएं संपन्न करवाई गई उस समय परीक्षाओं को लेकर इतना विरोध नहीं हुआ क्योंकि बच्चे अभी छोटे हैं और उनके साथ कोई राजनीति करने वाला ग्रुप नहीं था, कॉलेज में आकर बात कुछ अलग है एक और जहां छात्र नेताओं को अपना वोट बैंक तैयार करना है तो दूसरी और सरकारें भी विद्यार्थियों को प्रमोट ना करके आगामी चुनाव में अपने बोरी बिस्तर बांधना नहीं चाहती।
फिर सवाल ये उठता है कि उन नौनिहालों के भविष्य के बारे में क्या किसी भी मानवता के शुभचिंतक को चिंता नहीं थी ?हालांकि इस संबंध में कुछ विरोध हुआ था लेकिन इतने यत्न किसी ने नहीं किया।
2) यूजीसी के दिशा निर्देशानुसार प्रथम वर्ष के विद्यार्थियों के अंक शत प्रतिशत आंतरिक मूल्यांकन के आधार पर निर्धारित किए जाएंगे साथ ही द्वितीय वर्ष के विद्यार्थियों के अंक 50% आंतरिक मूल्यांकन के आधार पर तथा 50% गत वर्ष के परीक्षा परिणाम के आधार पर निर्धारित किए जाएंगे तब दो महत्वपूर्ण प्रश्न चिह्न है-
A) क्या शत प्रतिशत आंतरिक मूल्यांकन के आधार पर निर्धारण करना शिक्षकों की आत्मनिष्ठता के प्रकोप से बचा हुआ रह सकता है और क्या यह विश्वविद्यालय की मेरिट की सूची में शीर्ष पर आने वाले विद्यार्थियों के लिए बेमानी नहीं होगी जिनको प्रत्येक महाविद्यालय अपने-अपने रिजल्ट के लिए उच्चतम अंक देने की कोशिश करेगा?
B) आमतौर पर विश्वविद्यालय की परीक्षाओं के परिणामों से बहुत से विद्यार्थी असंतुष्ट नजर आते हैं तथा कई बार पुनर्मूल्यांकन में भी लापरवाही के चलते उनके अंको में सुधार नहीं होता फिर ऐसे में जिस द्वितीय वर्ष के होनहार विद्यार्थी जिसके अंक प्रथम वर्ष में मूल्यांकन संबंधी अनियमितताओं या निजी कारणों से कम रह गए थे उसको द्वितीय वर्ष के 50% अंक प्रथम वर्ष की मार्कशीट के आधार पर निर्धारित किए जाएंगे जो भारतीय संविधान के अनुसार किसी व्यक्ति को एक अपराध के लिए एक से अधिक बार दंडित नहीं किया जा सकता तो फिर यहां सिर्फ और सिर्फ विद्यार्थी से एक बार छोड़े गए प्रश्नों के अंक 2 बार कैसे छीने जा सकते हैं
3) एक सर्वे के मुताबिक भारत में लगभग 10-15% विद्यार्थी यह चाहते हैं कि परीक्षाओं का आयोजन किया जाए हालांकि यह प्रतिशत शेष विद्यार्थियों की तुलना में काफी कम है लेकिन वर्ष पर्यंत मेहनत करने वाले विद्यार्थियों को निराशा तो नहीं प्रदान की जा सकती है।
कुछ शिक्षक पात्रता परीक्षाओं में स्नातक की प्रतिशत का महत्व वर्तमान में है और भविष्य में भी किसी राज्य की सरकार ऐसे प्रावधान ला सकती है क्योंकि अगर ऐसे प्रावधान हटाए जाएंगे तो हो सकता है कि विद्यार्थी शिक्षक अपने प्रशिक्षण के प्रति लापरवाह हो जाए तो फिर क्या जिन विद्यार्थियों को आंतरिक मूल्यांकन के आधार पर खुशी खुशी से अच्छे अंक प्रदान किए जाएंगे की तुलना में भी विद्यार्थी जिन्होंने मेहनत करके भी अपेक्षाकृत कम अंक अर्जित किए थे के साथ यह अन्याय नहीं होगा?
5) अक्सर अपनी जिंदगी के महत्व की दुआ देने वाले महाविद्यालय ी छात्रों को प्रमोट करने से पहले यह शर्त रखी जानी चाहिए कि जब तक देश में लॉकडाउन रहता है तब तक यदि उनमें से कोई भी कोरोना की गाइडलाइंस की अवहेलना करते हुए पुलिस के हाथ लगता है तो वह जुर्माना भरने को तैयार रहे क्योंकि आज वह अपने स्वास्थ्य एवं भविष्य को लेकर बहुत सतर्क हैं और ऐसी ही अपेक्षा उनसे भविष्य में भी की जाती है।